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आँखें बनाता दश्त की वुसअत को देखता / अहमद रिज़वान
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आँखें बनाता दश्त की वुसअत को देखता
हैरत बनाने वाले की हैरत को देखता
होता न कोई कार-ए-ज़माना मिरे सुपुर्द
बस अपने कारोबार-ए-मोहब्बत को देखता
कर के नगर नगर का सफ़र इस ज़मीन पर
लोगों की बूद-ओ-बाश ओ रिवायत को देखता
आता अगर ख़याल शजर छाँव में नहीं
घर से निकल के धूप की हिद्दत को देखता
यूँ लग रहा था मैं कोई सहरा का पेड़ हूँ
उस शाम तो अगर मिरी हालत को देखता
‘अहमद’ वो इज़्न-ए-दीद जो देता तो एक शाम
ख़ुद पर गुज़रने वाली अज़िय्यत को देखता