आँखों की खिड़की से उड़-उड़
आते ये आते मधुर-विहग,
उर-उर से सुखमय भावों के
आते खग मेरे पास सुभग।
मिलता जब कुसुमित जन-समूह
नयनों का नव-मुकुलित मधुवन
पलकों की मृदु-पंखड़ियों पर
मँडराते मिलते ये खगगण।
निज कोमल-पंखों से छूकर
ये पुलकित कर देते तन-मन,
अस्फुट-स्वर में मन की बातें
कहते रे मन से ये क्षण-क्षण।
उर-उर में मृदु-मृदु भावों के
विहगों के रहते नीड़ सुभग,
इस उर से उस उर में उड़ते
ये मन के सुन्दर स्वर्ण-विहग।
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२