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आँखों की बदलियाँ / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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लूट लिया दर्दो की हलचल ने भीतर का सूनापन।
आँखों की बदलियाँ सजल हैं पर मन का सूखा सावन।

मेरी आँखों में आकर के समा गयी जब से है छवि
धरा व्योम वन उपवन में बस होता तेरा ही दर्शन।

छीवाली के दीप जले हर ओर नया आलोक हुआ।
जाने क्यों उर अन्तर मेरे घिरा हुआ तम तोम सघन।

किये हुए शृंगार अपरिमित बासन्ती बेला मोहक
रास न आता मुझे रास यह भौरों का मधुरिम गुजंन।

औरों को तो रहा बँधाता ढाँढस किन्तु न खुद भूला
यादों के ज्वारिल समद्र से धायल घायल है तट मन।

जीवन से जीवन की टूटन देख अवाक रह गया मैं
हरा भरा हो गया आज फिर तेरी यादों का उपवन।

निज अतीत के पन्नों का जब-जब अवलोकन करता हूँ
मौलिकता के शेष भग्न अवशेषों का दिखता नर्तन।

घटी दिशाओं की दूरी है किन्तु दिलों की बहुत बढ़ी
यह कैसा षड्यन्त्र घोर नैतिक अवनति का है साधन।