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आँखों को मयस्सर कोई मंज़र ही नहीं था / 'सुहैल' अहमद ज़ैदी

आँखों को मयस्सर कोई मंज़र ही नहीं था
सर मेरा गिरेबान से बाहर ही नहीं था

बे-फैज़ हवाएँ थीं न सफ़्फ़ाक था मौसम
सच ये है कि उस घर में कोई दर ही नहीं था

सर चैन से रक्खा न रूके पाँव के दिल में
इक बात भी पैवस्त थी ख़ंजर ही नहीं था

हम हार तो जाते ही कि दुश्मन के हमारे
सौ पैर थे सौ हाथ थे इक सर ही नहीं था

सहरा में वो सब कुछ था जो था शहर में अपने
इक नफ़ा ओ नुक़सान का दफ़्तर ही नहीं था

हाथों पे धरा सर को ‘सुहैल’ और चले हम
अब बाब कोई और मयस्सर ही नहीं था