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आँखों भर की हदवाले आकाश ! / हरीश भादानी

आँखों भर की हदवाले आकाश !
एक-एक संवत्सर ही क्यों
कई-कई अनुवत्सर तक भी
रख पानी का
पत तू अपने पास !
आँखों भर की हदवाले आकाश !


चल-अचलों को रच-रच रचती
सदा गर्भिणी धाय धरा को
नहीं रही है
केवल तेरी आस
आँखों भर की हदवाले आकाश !


देख रे ओ नागे ओगतिये !
सूखे आँचल सात समंदर,
पहले तू ही
पांणले अपनी प्यास,
आँखों भर की हदवाले आकाश !


कभी-कभी रिमझिम बरसे जो
वह मेरी माटी माँ का ऋण
मत लौटा तू
रखले अपने पास
आँखों भर की हदवाले आकाश !


आँख खोलने से पहले ही
मुझे पिलाई गई एषणा
वही बुने है
कई-कई आकाश
आँखों भर की हदवाले आकाश !


इसके गहन क्रोड़ में अमरत
जीवट भरे कुम्भ जीवन का
अन्तस-बाहर
दोनों हरियल टांस


आँखों भर की हदवाले आकाश !