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आँखों में उगे मरुथल / योगेन्द्र दत्त शर्मा
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हर कदम पर एक अस्वीकार
मेरे मन!
ढूंढकर लायें कहां से
अब नया दरपन!
एक गूंगी भीड़
सहमे स्वर
हंसी घायल
पानीदार आंखों में
उगे मरुथल
रह गये परछाइयां-भर
राह के सहजन!
रेत में ढूंढें कहां रसधार
मेरे मन!
आदमी क्या
सिर्फ पथराये हुए
चेहरे
सनसनी पहने
कुए में डूबते
गहरे
नब्ज अपनी किन्तु
बेगानी हुई धड़कन!
कहां तक ढोयें विवश आभार
मेरे मन!