आँखों में चुभ रहे हैं दरो-बाम के चराग़ / फ़राज़
आँखों में चुभ रहे हैं दरो-बाम<ref>द्वार व छत</ref> के चराग़ <ref>दीपक</ref>
जब दिल ही बुझ गया हो तो किस काम के चराग़
क्या शाम थी कि जब तेरे आने की आस थी
अब तक जला रहे हैं तेरे नाम के चराग़
शायद कभी ये अर्स-ए-यक-शब<ref>एक रात का समय</ref>न कट सके
तू सुब्ह की हवा है तो हम शाम के चराग़
इस तीरगी<ref>अँधेरे</ref>में लग्ज़िशे-पा<ref>पाँव की डगमगाहट</ref>भी है ख़ुदकुशी<ref>आत्म-हत्या</ref>
ऐ रहरवाने-शौक़<ref>अभिलाषी</ref>ज़रा थाम के चराग़
हम क्या बुझे कि जाती रही यादे रफ़्तगाँ<ref>पूर्वजों की याद</ref>
शायद हमीं थे गर्दिशे-अय्याम<ref>समय-चक्र</ref>के चराग़
हम दरख़ुरे-हवा-ए-सितम<ref>हवाओं के अत्याचार से डरने वाले</ref>भी नहीं ‘फ़राज़’
जैसे मज़ार<ref>समाधि</ref>पर किसी गुमनाम के चिराग़