भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँखों में पाले / विष्णु सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखों में पाले तो पलकें भिगो गए
वासंती मौसम भी पतझड़
से हो गए

बीते क्षण बीते पल जीत और हार में
बीत गयी उम्र सबझूठे सत्कार में
भोर और संध्या सब करवट
ले सो गए

जीवन की वंशी में साँसों का राग है
कदमों में काँटे हैं हाथों में आग है
अपनों की भीड़ में सपने
भी खो गए

रीता है पनघट रीती हर आँख है
मुरझाए फूलों की टूटी हर पाँख है
आँधियों को देख कर उपवन
भी रो गए

कितना अजीब फूल काँटे का मेल,
जीवन है गुड्डे और गुड़्यों का खेल,
पथरीले मानव को तिनके
भिगो गए।