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आँखों में रेत प्यास / देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र'

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फूलों के बिस्तर पर
नींद क्यों नहीं आती,
चलो, कहीं सूली पर, सेज हम बिछाएँ ।

दूर-दूर तक कोई
नदी नहीं दिखती है ।
हिरणों की आँखों में
रेत प्यास लिखती है ।
घाटी में हँसते हैं,
बुत ही बुत पत्थर के,
चलो, कहीं सूने में, ख़ुद से बतियाएँ ।

आग हुई धुआँ-धुआँ
अँधियारा गहराया ।
पेड़ों पर पसर गया
गाढ़ा काला साया ।
आगे है मोड़ों पर
बियाबान सन्नाटा
चलो, कहीं पिछली पगडण्डी गुहराएँ ।

तुम से जो मुमकिन था
अभिनय वह ख़ूब किया ।
वह देखो सूर्यध्वज
जुगनू ने थाम लिया ।
मंच पर उभरने को
एक भीड़ आतुर है,
चलो, कहीं पर्दे के पीछे छिप जाएँ ।