भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँखों में सपने रहे / कमलेश भट्ट 'कमल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखों में सपने रहे, परवाज़ से रिश्ता रहा

मैंने चाहा और मैं हर हाल में ज़िन्दा रहा।


कुछ सचाई हो किसी में बात यह भी कम नहीं

झूठ के बाजार में कोई कहाँ सच्चा रहा।


क्या सही है क्या गलत, ये वक्त़ ही खुद तय करे

जो मुझे वाजिब लगा, मैं बस वही करता रहा।


ज़िन्दगी की पाठशाला में यहाँ पर उम्र भर

वृद्ध होकर भी हमेशा आदमी बच्चा रहा।


मील का पत्थर बना कोई खड़ा ही रह गया

और कोई रास्तों पर दूर तक चलता रहा।