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आँखों से अभी अश्क रवाँ लब पे फ़ुग़ाँ है / कांतिमोहन 'सोज़'

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आँखों से अभी अश्क रवाँ लब पे फ़ुग़ाँ है।
रह-रहके ये लगता है अभी इश्क़ जवाँ है।।

अल्फ़ाज़ पे उस बुत के न जाना मेरे हमदम
साबित तो हुआ उसके दहन<ref>मुँह</ref> में भी ज़बाँ है।

हम सह्लतलब<ref>आरामपसन्द</ref> खूब थे गो फ़ैज़ नहीं थे
'इस शह्र में तेरे कोई हम-सा भी कहाँ है।'

इस ज़िद में गुरेज़ाँ है अभी सहरा<ref>रेगिस्तान से विमुख</ref> से मजनू
लैला ही पुकारेगी मेरा क़ैस कहाँ है।

सब हारके महफ़िल से उठा तेरा फ़िदाई<ref>जान देनेवाला</ref>
एक राज़ छुपाए हुए जो सबपे अयाँ है।

ग़ुंचे न सही चलके वहाँ ज़ख़्म खिला दें
सुनते हैं कि अब यार के गुलशन में ख़िज़ाँ है।

ये देखके नादिम<ref>लज्जित</ref> है बहुत सोज़ यक़ीनन
फ़रहाद के दिल में भी वही सूदो-जियाँ<ref>नफ़ा-नुक़सान</ref> है।।

शब्दार्थ
<references/>