भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है / 'ज़ौक़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है
जान कुश्ती क़ज़ा से लड़ती है.

शोला भड़के न क्यूँ के महफ़िल में
शम्मा तुझ बिन हवा से लड़ती है.

क़िस्मत उस बुत से जा लड़ी अपनी
देखो अहमक़ ख़ुदा से लड़ती है.

शोर-ए-क़ुलक़ुल ये क्यूँ है दुख़्तर-ए-रज़
क्या किसी पारसा से लड़ती है.

नहीं मिज़गाँ की दो सफ़ें गोया
इक बला इक बला से लड़ती है.

निगह-ए-नाज़ उस की आशिक़ से
छूट किस किस अदा से लड़ती है.

तेरे बीमार के सर-ए-बालीं
मौत क्या क्या शिफ़ा से लड़ती है.

ज़ाल-ए-दुन्या ने सुल्ह की किस दिन
ये लड़ाका सदा से लड़ती है.

वाह क्या क्या तबीअत अपनी भी
इश्क़ में इब्तिदा से लड़ती है.

देख उस चश्म-ए-मस्त की शोख़ी
जब किसी पारसा से लड़ती है.

तेरी शमशीर-ए-ख़ूँ के छींटों से
छींटे आब-ए-बक़ा से लड़ती है.

सच है अल-हर्ब ख़ुदअतुन ऐ 'ज़ौक़'
निगह उस की दग़ा से लड़ती है.