आँख की खोज / कुमार रवींद्र
तुमने सोचा है कभी
आँख क्या है
आओ, अपनी यादों की नदी के साथ चलकर
हम खोजें
आँख क्या है ।
नदी-किनारे बैठे
उस क्षण की मुझे याद है
जब हम उठने लगे थे
और दिन-भर की आँख ने जो कुछ देखा था
वह दूर के पहाड़ के नीचे बैठ गया था -
हमारे उठने और उसके बैठने का क्षण एक ही था ।
आँख वही क्षण है
जो वहाँ ठिठका रह गया था
अप्रतिभ और अवसन्न ।
वह जो लंबी यात्रा
सड़क के इस छोर से शुरू होकर
न जाने कहाँ तक जा रही है
वह भी एक आँख है -
टूटे खण्डहरों के बीच उसका पँख फड़फड़ाना
मैंने अक्सर सुना है ।
बहुत देर तक बिछे
रात के ऐलान को तुम देख रहे हो
जब सूरज के सारे पल जुगनू होकर
आकाश में उड़ने लगते हैं
साँय-साँय करते पेड़ों के बीच गुज़रता
वह भय भी तुमने देखा होगा
जिससे घोंसलों की नींद चौंक जाती है
वह ऐलान
वह भय
यही आँख है -
उसे रात के चेहरे पर अक्सर जागते मैंने देखा है |
यादों की नदी के किनारे
आँख की तमाम परिभाषाएँ हमें मिलेंगी
जिनकी पहचान इतनी पुरानी हो गई है
कि लगता ही नहीं ये अपनी भी हैं -
कुचले हुए दूब के पल ऐसे ही हो जाते हैं |
किन्तु
हमारा अन्वेषण
इस नदी के किनारे की यह खोज
बहुत अकेली होगी ।
तुम्हारे चारों ओर ताज़ा यादों की भीड़ है
और हमारा साथ नामुमकिन है -
मैं अकेला ही खोजूँगा आँख क्या है ।