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आँख वाले हो के भी अंधे हुए / डी .एम. मिश्र
Kavita Kosh से
आंख वाले हो के भी अंधे हुए
सोचिए कुछ हादसे ऐसे हुए
बेदख़ल इंसानियत होने लगी
जब ज़रूरत से अधिक पैसे हुए
इस तरक़्क़ी का यही हासिल रहा
ज़िन्दगी के स्वाद सब फीके हुए
वो न समझेंगे कभी संवेदना
जो मशीनों के ही कलपुर्ज़े हुए
गांव में कमज़ोर कुछ बूढ़े बचे
शेष तो नगरों के बाशिंदे हुए
आधुनिक बनने का मतलब क्या यही
क़ीमती वस्त्रों में भी नंगे हुए
आप क़ाबिल थे , बहुत ही अक़्लमंद
आप के फिर साथ क्यों धोखे हुए
गिरगिटों की जात हम पहचानते
तब वही कैसे थे, अब कैसे हुए