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आँख सहमी हुई डरती हुई देखी गई है / रफ़ी रज़ा

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आँख सहमी हुई डरती हुई देखी गई है
अमन की फ़ाख़्ता मरती हुई देखी गई है

क्या बचा कितना बचा ताब किसे है देखे
मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़रती हुई देखी गई है

ऐसे लगता है यहाँ से नहीं जाने वाली
जो सियह-रात ठहरती हुई देखी गई है

दूसरी बार हुआ है कि यही दोस्त हुआ
पर परिंदों के कतरती हुई देखी गई है

एक उजड़ी हुई हसरत है कि पागल हो कर
बैन हर शहर में करती हुई देखी गई है

मौत चमकी किसी शमशीर-ए-बरहना की तरह
रौशनी दिल में उतरती हुई देखी गई है

फिर किनारे वे वही शोर वही लोग ‘रज़ा’
फिर कोई लाश उभरती हुई देखी गई है