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आँख / केशव
Kavita Kosh से
इस बस्ती में
न कहीँ धरती है
न आसमान
सिर्फ मँडराती है एक आँख
चील की तरह घोंसलों पर
आँख करती है ‘फ्लैग मार्च’
बुझी बस्ती में
और झपटती है
सन्नाटे में से अचानक उभरती
आवाज़ पर
आँख को नहीं मंज़ूर
कि बन जाए
आवाज़
धरती
या
आसमान
तभी तो
बस्ती
दिखाई देती है एक मचान