आँगन-2 / नील कमल
आँगन में रहती थी एक
दुनिया,
जिसे लांघ कर वे
निकल पड़े थे दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता
और अब तक नहीं लौटे थे घर
आँगन को रहता था इंतज़ार
दुनिया शायद कभी
हो इतनी छोटी,
फिर से गूँजे घर-आँगन
सोहर, लोरी, चैता, कजरी
लेकिन जो छोड़ चुके थे आँगन
उनके लिए दुनिया का आँगन था
खुला-खुला,
दुनिया के खुले आँगन में
वे लोग थे बन्द, अपने-अपने
सपनों के बख़्तर में
आँगन इधर रहता था
रूठा-रूठा
आँगन के सन्नाटे को
तोड़ती थी जाँता-चक्की की
घरघराहट जिसमें
गेहूँ पीसती बुढ़िया गाती थी
कोई राजा ढोलन का गीत
करूण स्वर में
बहुत दिन हुए राजा ढोलन को
घर छोड़े,
राजा के उदास घर-आंगन
कह रहे थे विदा लेते राजा से,
बारह साल बाट जोहने के बाद
वे ढह जाएँगे
इंतज़ार के तेरहवें साल में
इंतज़ार के कितने तेरह साल
हर साल बीते, और वह
बुढ़िया जाँते पर बैठी
वही करूण गीत गाती है अनवरत
बहुत बेचैन रहता हूँ मैं
कि बुढ़िया का गाना बंद नहीं होता
बहुत दिन हुए, मैंने अपने आँगन
की सुध नहीं ली।