भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँगन और आकाश / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
हाथी पर सोने के हौदे
घोड़े पर चाँदी की जीन
दोनों के चलने की ख़ातिर
हम होते हैं सिर्फ ज़मीन।
बँधी बल्लियों के बाड़े में
हम कतार में खड़े हुए
सैंतालिस से सत्तासी तक
बातों-बातों बड़े हुए
भय हमसे विश्वास हमी से
बोला करते शब्द ज़मी के
कभी उगलते आग
कभी छाती छूकर कहते आमीन।
उनकी आँखों में आँसू हैं
अपनी आँखों में आँसू,
हँसी और रोने के रिश्ते
लगते हैं कितने धाँसू,
बचपन में भावी सपने थे
बड़े हुए उनके अपने थे
भीडों में हीरे-मोती हम
घर लौटे कौड़ी के तीन।
घर के भीतर आँगन भी है
आँगन से आकाश दिखे,
पूछ रहा मुन्ना दादी से
घोड़ा लिखे कि घास लिखे,
हाथी-घोड़े लश्कर-लाव
चलकर छोड़ गए कुछ घाव
बिछे-बिछे कट गई सतह
तो उभरेगी ही पर्त नवीन।