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आँगन बँटा / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

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आँगन बँटा
हवाएँ सिमटीं
आती नहीं धूप अब घर में

दिखता है आकाश ज़रा-सा
धुँधला-धुँधला
पुरखिन घर की सोच रही –
क्यों सब कुछ बदला

और भला क्यों
सत्त नहीं
रह गया कोई ढाई आखर में

साँझे चूल्हे की चर्चा भी
कौन करे अब
सीख रहे घर के लड़के
दुनियावी मज़हब

स्वारथ व्यापा
ज़हर घुला
दरवाज़े के बूढ़े पोखर में

सात-मंजिला हाट बना है
घर के आगे
पूजाघर में बसे देवता
हुए अभागे

कटा नीम का
सघन बिरछ भी
पिछले पतझर में