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आँगन में उग आए जंगल / प्रशांत उपाध्याय

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चोरी चोरी चुपके चुपके
आँगन में उग आये जंगल
मगर प्रगति की राहों पर हम
चले जा रहे पैदल पैदल

आलपिनों सी हुईं साजिशें
गुब्बारे सा नेह
बिकलांगों सी दीख रही है
रिश्तों वाली देह
सन्यासी सा भटक रहा मन
रीता रीता लिये कमंडल

गली गली में घूम रहे हैं
आतंकी सन्त्रास
कमरों में अब छिपे हुए हैं
डरे डरे अहसास
मानवता के द्वारे द्वारे
बिखर गया है कीचड़ दल दल

फँसे हुए सपनों के पंछी
षड़यन्त्रों के जाल
राजनीति तो तिलक लगाए
सिर्फ बजाती गाल
सूख गयी आशा की नदिया
बहती थी जो कल कल कल कल