आँगन / प्रशांत विप्लवी
मेरा गाँव
इनदिनों बदल रहा है अपना स्वरुप
उग रही है एक दीवार
आँगन में
और कुछ दरारें
उभरकर गहरी हो रही है
उम्मीदों का दरख़्त
सूख रहा है इनदिनों
दीवारों के उठ आने से उभरे दरार
बेशक टीस देता हो बहुत
लेकिन मुझे फ़िक्र है
उन कौओं के भूखे रह जाने की
उन बिल्लियों के बेघर हो जाने का
उन भिखमंगों को भ्रमित हो जाने का
उन बच्चों के विस्तृत आँगन छिन जाने का
रंग-बिरंगे गीले कपड़ों से सजी अलगनी के खत्म हो जाने का
अमरुद लदे पेड़ के कट जाने का
बिछी खाट के जर्जर हो जाने का
पक्के नालों से बारिश को बाहर निकल जाने का
देर रात तक औरतों के किस्सों के थम जाने का
बूढी देह तक धूप के नहीं पहुँच पाने का
एक बड़े आँगन से पुरानी परंपरा के नष्ट हो जाने का
चिट्ठियों के लिए ठिकानों का टुकड़ों में बंट जाने का
दीवार की दोनों तरफ माँ-बाप के बंट जाने का
अर्थियों पर कंधों के घट जाने का
मैं इस दीवार के दोनों तरफ मौजूद हूँ
मुझे उम्मीद है
एक दिन ये दीवार गिर जायेगी
दरारे भर जायेगी
उग आएगा कोई नया पौधा
आँगन में बारिश भर जायेगी
कागज़ का नाव लेकर दौड़ पड़ेंगे बच्चे
मैं दीवार के दोनों तरफ बंटा वो आँगन हूँ
जो स्वप्न में उम्मीद देखता है और देखता है कोई गिरी हुई दीवार