भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँधियाँ चलने लगीं हैं / रजनी मोरवाल
Kavita Kosh से
आँधियाँ
चलने लगीं हैं फिर हमारे गाँव
झर रहे ख़ामोश
पत्ते उम्र से ज्यों छिन
ज़िन्दगी के चार में से
रह गए दो दिन
खेत की किन क्यारियों में
खो गई है छाँव ?
खेत सूखे
जा रहे हैं, भूख से ज्यों देह
मोर बैठा ताकता है
रिक्त होते मेह
बोझ से ज़ख़्मी हुए
पगडण्डियों के पाँव
रेत ने सब
लील डाली है नदी की धार,
भोगनी पड़ती ग़रीबों
को दुखों की मार
ठूँठ होती
टहनियों पर चील ढूँढ़े ठाँव