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आँसुनि कि धार और उभार कौं उसांसनि के / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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आँसुनि कि धार और उभार कौं उसांसनि के
तार हिचकीनि के तनक टारि लैन देहु ।
कहै रतनाकर फुरन देहु बात रंच
भावनि के विषम प्रपंच सरि लेन देहु ॥
आतुर ह्वै और हू न कातर बनावौ नाथ
नैसुक निवारि पीर धीर धरि लेन देहु ।
कहत न आबै हैं कहि आवत जहाँ लौं सबै
नैकु थिर कढ़त करेजौ करि लेन देहु ॥109॥