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आँसू-छन्द / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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बेगुनाहों के
इस लहू में
धर्म-ईमान सब
खो गया,
यहाँ न जाने
कौन बहेलिया
मौत का चारा
बो गया।

चीख-कराहें
लथपथ धरती
उड़ती है
बारूदी गन्ध,
कायरता वाली
करतूतें
निश-दिन लिखती
आँसू-छन्द।

मासूमों का
नन्हा बचपन
छिपते सूरज-सा
हो गया।

हथियारों के
सौदागर भी
अमन के नारे
लगा रहे।
पहने मुखौटे
मानवता के
भस्मासुर को
जगा रहे।

बेबसी की इस
कत्लगाह में
मानव ही कहीं
सो गया।
-0- (16-6-2006)