भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँसू बन दृग से पीर बहे / चेतन दुबे 'अनिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँसू बन दृग से पीर बहे।

झुलसा सपनों का चंदन वन,
लुट गया भावना का मधुवन।
पर पता मुझे अब तक न चला-
दुनिया में कैसी हवा बहे।
आँसू बन दृग से पीर बहे।

यादों का होता अंत नहीं,
आकर्षित करे बसंत नहीं।
मेरे मर्माहत मानस को-
हर पल अंतर का दर्द दहे।
आँसू बन दृग से पीर बहे।

सपने सब गिरकर चूर हुए,
जबसे तुम मुझसे दूर हुए।
अब तुम्हीं कहो जीवन संगिनि!
मेरा मन किसकी शरण गहे।
आँसू बन दृग से पीर बहे।