आँसू बहा रहे हैं निर्णय को तोड़ कर।
आक्रोश व्यक्त कर रहे पोरों को मोड़कर।
छूने चले जो अहम के पँखों से अंशुमान,
सम्पाति बन के जी थी अपमान ओढ़कर।
जब अक्षरों का बोझ ही ढोया नहीं गया,
तब हाशिये पर आ गए पन्ना मरोड़कर।
जब प्रेम दूसरों से मिला दिल को खोलकर,
तब दूसरों से मिल गए अपनों को छोड़कर।
जब भर गई पाप से गागर ही लबालब,
तब हो गए हैं शुद्धतम गागर को फोड़कर।
1973 में लिखी गई कवि की पहली ग़ज़ल