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आंखें तरस रही हैं ये दीदार के लिए / ऋषिपाल धीमान ऋषि

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आंखें तरस रही हैं ये दीदार के लिए
आओ कभी तो यार परस्तार के लिए।

अहले-चमन से पूछ के तुम देखना कभी
कितने गुलों का खून हुआ हार के लिए।

खुद अपनी ज़िन्दगी का तमाशा बना लिया
क्या क्या किया न मैंने यहां प्यार के लिए।

साक़ी! छके हुओं को पिलाता है तू शराब
थोड़ी शराब दे दे तलबगार के लिए।

मलिका-ए-हुस्न, जुहराजबीं, शोख़, गुलबदन
काफी नहीं ये नाम मेरे यार के लिए।

कुछ तो ज़ुबाँ से बोलिये क्या बात है जनाब?
होते हैं ये इशारे समझदार के लिए।