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आंखें / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
आँखें बायस्कोप होती हैं आँखों में होता है सपनों का आसमान
अरमानों का गहरा समँदर
थोडा-सा इंतज़ार थोडी-सी बेकरारी
हँसते हुए जज़बात रोती हुई हताशा एक पूरा का पूरा गाँव एक पूरा का पूरा शहर बसते हुए इंसान
उजडती हुई ज़िन्दगी
मौसम की करवटें खामोशी से गिरती बर्फ पहले जादुई, फिर खौफनाक बर्फ से पटते घर, घुटती हुई साँसें
आँखों की पलकों में होता है पूरा का पूरा आकाश ख्वाबों में उतरता चाँद-चाँद पिघल जाता है आँखें टटोलती रह जाती हैं ख्वाबों का कोना-कोना आँखें नहीं जानतीं, क्या-क्या दीख जाता है उनमें।