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आंगन का पंछी / बुद्धिनाथ मिश्र

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आँगन का पंछी चढ़ा मुड़ेरे पर
जंगल को अपना घर बतलाता है
कुछ ऐसी हवा बही ज़हरीली-सी
सारा का सारा युग हकलाता है ।

रोपना हमारा बिरवा तुलसी का
फूटी आँखों भी उसे नहीं भाता
जब भी दरवाज़ा सूना पाता वह
आकर सारी पत्तियाँ कुतर जाता

क्षत-विक्षत कर पंजों से वह अपने
दर्पण की सत्ता को झुठलाता है ।

इस घर के सूरज की हो यही नियति
पाँखें जमते ही नीड़ छोड़ जाना
फिर जाने किस बेचारेपन से घिर
पश्चिमी क्षितिज से लौट नहीं पाना

जाने कैसी यह नज़र लगी उसको
बेहोशी में गाता-चिल्लाता है ।

जब इंद्रधनुष झुककर माथा चूमे
तलवे धो जाएँ सागर की लहरें
जब शंख जगाए सुबह-सुबह हमको
बतलाओ कैसे हो जाएँ बहरे

जीवन के व्याकरणों को दफ़नाकर
भाषा के भ्रम में वह तुतलाता है ।