भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आंगन का बिरवा / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
(लोक धुन पर आधारित)
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
रोप गये साजन,
सजीव हुआ आँगन;
जीवन के बिरवा मीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
पी की निशानी
को देते पानी
नयनों के घट गए रीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
फिर-फिर सावन
बिन मनभावन;
सारी उमर गई बीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
तू अब सूखा,
सब दिन रूखा,
दुखा गले का गीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
अंतिम शय्या
हो तेरी छैंयाँ,
दैया निभा दे प्रीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!