Last modified on 12 नवम्बर 2011, at 20:27

आंसू-गीति / बसन्तजीत सिंह हरचंद

तब तक ही आकाश साफ़ था जब तक तेरे स्थिर थे आंसू ,
फिर बादल बेचैन हो गये देख तुम्हारे गिरते आंसू ।

इन आँखों के पुष्पित सपने मरु बन-बनकर प्यासे तरसे ,
इन आँखों से कितने सागर बूँद -बूँद रिस -रिसकर बरसे ;
उर की शीतलता जल जाती जब ,तब जाकर घिरते आंसू ।

इन आँखों में पीले पत्ते झड़ते सूखे पतझड़ रहते ,
इन आँखों के उजड़े हुए उजाड़ कथाएँ दुःख की कहते ;
कितना भी रोकें आ जाते बरबस फिरते -फिरते आंसू ।

इन आँखों में स्मृतियों के अध-टूटे -फूटे खँडहर बसते .
इन आँखों की गलियों में हैं पागल होकर क्रन्दन हंसते;
गिरने से पहले आँखों में कई दिनों तक तिरते आंसू ।।

(गीति - बांसुरी बजी अरी !,२००३)