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आइए गाँव की कुछ ख़बर ले चलें / रामकुमार कृषक
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आइए गाँव की कुछ ख़बर ले चलें ।
आँख भर अपना घर खण्डहर ले चलें ।
धूल सिन्दूर-सी थी कभी माँग में,
आज विधवा-सरीखी डगर ले चलें ।
लाज लिपटी हुई भंगिमाएँ कहाँ,
पुतलियों में बसा एक डर ले चलें ।
एक सुबहा सुबकती-सिमटती हुई,
साँझ होती हुई दोपहर ले चलें ।
देह पर रोज़ आँकी गई सुर्खियाँ,
चीथड़े खून से तर-ब-तर ले चलें ।
राम को तो सिया मिल ही मिल जाएगी,
मिल सकें तो जटायु के पर ले चलें ।
खेत-सीवान हों या कि हों सरहदें,
चाक होते हुए सब्ज़ सिर ले चलें ।
राजहंसों को पाएँ न पाएँ तो क्या,
संग उजड़ा हुआ मानसर ले चलें ।
देश दिल्ली की अँगुली पकड़ चल चुका,
गाँव से पूछ लें अब किधर ले चलें ।