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आइने के सामने / ध्रुव शुक्ल
Kavita Kosh से
आइने के सामने, बाती जब आती है।
बाती को बुलाती है, बाती ही बुलाती है।
बाती ख़ूब हँसती है, बाती को हँसाती है।
बाती घूम जाती है, बाती को घुमाती है।
बाती जब पकड़ती है, बाती को पकड़ती है।
हाथ नहीं आती है, बाती रूठ जाती है।
बाती ही मनाती है, बाती को मनाती है।
बाती चली जाती है, बाती रह जाती है।