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आईना-रू के शौक़ में हैराँ हुआ हूँ मैं / 'सिराज' औरंगाबादी

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आईना-रू के शौक़ में हैराँ हुआ हूँ मैं
ज़ुल्फ़ों को उस की देख परेशां हुआ हूँ मैं

है ख़ून-ए-दिल शराब मुझे और गज़क जिगर
जब सूँ परत की बज़्म में मेहमाँ हुआ हूँ मैं

आब-ए-हयात-ए-वस्ल सीं दे उम्र-ए-जाविदाँ
ख़ंजर सूँ तुझ फ़िराक़ के बे-जाँ हुआ हूँ मैं

सीने के दाग़ किस कूँ दिखाऊँ मैं खोल कर
दिल के लहू में डूब के ग़लताँ हुआ हूँ मैं

मुद्दत सूँ था ज़ियारत-ए-काबा का मुझ कूँ ज़ौक़
तेरी भवाँ कूँ देख के क़ुर्बां हुआ हूँ मैं

उस मस्त-ए-नीम-ख़्वाब की आँखों कूँ देख कर
मजलिस में ग़म की शौक़ सीं गरदाँ हुआ हूँ मैं

उस माह-रू कूँ देख के ज्यूँ शम्अ ऐ ‘सिराज’
अपने अरक़ के शर्म सीं पिन्हाँ हुआ हूँ मैं