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आईना बन सका न मैं खुद अपनी ज़ात का / रमेश तन्हा
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आईना बन सका न मैं खुद अपनी ज़ात का
धरती भी है नज़र में मिरी, आसमान भी
क्या पुर-फ़रेब किस्सा है मेरी हयात का
आईना बन सका न मैं खुद अपनी ज़ात का
कहने को हूँ मैं एक मुरक्का सिफ़ात का
अपने ही होने का नहीं मुझ को गुमान भी
आईना बन सका न मैं खुद अपनी ज़ात का
धरती भी है नज़र में मिरी, आसमान भी।