आईना / संतोष श्रीवास्तव
मैं देख रही हूँ
आईने को झील में फैलता
बालों को सँवारती लड़की
अडोल जल में देखती है
अपना प्रतिबिंब
वक्त गुजर जाता है
वह खो देती है खुद को झील में
झील की सतह से
निकल आती है
झुर्रियों भरे चेहरे वाली औरत
औरत के ख्वाब
आईना सहेज लेता है
ख्वाबों में है पूरनमासी का चाँद
जूही के फूल और
कातर आँसुओं की बूंदें
झील से उठकर
आईना दिखाता है
शायरी की दुनिया
दिखलाता है मंजर
अलहदा-अलहदा
कहीं महबूब तक
पहुँचने की राह दिखलाता
कहीं रंगारंग दुनिया कि सैर
तो कहीं महबूब से जुड़े
बयानों का खजाना
कहीं दरो दीवार की
हकीकत का खुलासा
कहीं तमाशा, कहीं शरारत,
कहीं हसीन चेहरा
तो कहीं उम्र का एहसास कराता
मैं समझ सकूं, संभल सकूं
इसके पहले ही
वक्त को आईना
दिखा देता है आईना