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आईने से मुँह चुराकर क्या करें / गिरधारी सिंह गहलोत
Kavita Kosh से
आईने से मुँह चुराकर क्या करें
चोर है जब दिल के अंदर क्या करें।
जानते सब हैं बुरी होती शराब
तोड़ते फिर भी न सागर क्या करें।
देखने वाला अगर कोई न हो
हुश्नवाले सज सजाकर क्या करें।
लाख हम रख लें छुपाकर दर्द को
आग तो जलती है भीतर क्या करें।
ये सियासतदां समझ पाते नहीं
फ़ौज पर बरसे न पत्थर क्या करें।
रहगुजर उल्टी पकड़ हम ख़ुद चलें
मिल के भी फिर लाख रहबर क्या करें।
मुफलिसी की आग में जो जल रहे
हर तरफ मिलती है ठोकर क्या करें।
हमसफ़र कोई नहीं है हमक़दम
प्यार की खाली है गागर क्या करें।
हम क़लम फेंकें 'तुरंत ' या तोड़ दें
बिन ख़यालों के भी शायर क्या करें।