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आई बो / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

खुशी का ये इजहार
हर्ष का अतिरेक
सुनोगे गूँजता हुआ
कोई नहीं जानता
इसका शाब्दिक अर्थ
किया नहीं किसी ने अनुसंधान
कौन-सी लिपि से है
हड़प्पा या मोहनजोदड़ो
कोई पढ़ नहीं पाया
क्यों निकलती है ये ध्वनि
काट लेता है जब कोई
एक रंगीन कागज का टुकड़ा
मिलती है खुशी कितनी
जब लहराती हुई नीचे आती है पतंग
दौड़ पड़ते हैं बच्चे लूटने को
आदमी ने भी खुश होने के
कैसे-कैसे ढंग पाले हैं
एक कागज के टुकड़े में
कितने अरमान निकाले हैं
भर देते हैं आसमाँ रंगों की रेल-पेल से
बिखर गए हों सैकड़ों इंद्रधनुष जैसे।