भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आई हूँ अस्त होने / तसलीमा नसरीन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूरब में तो मैं जन्मी ही हूँ
पूरब में ही नाची हूँ मैं, अपना यौवन दिया है
पूरब में तो जो ढालना था मैंने ढाला ही है
अब जब कुछ भी नहीं बचा
जब कच्चे बाल पक गए
अब जबकि आँखों में मोतियाबिन्द है, धूसर-धूसर
जब ख़ाली-ख़ाली है सब कुछ

सब कुछ वीरान ... अस्त होने पश्चिम में आई हूँ।

अस्त होने दो, अस्त होने दो
यदि अस्त नहीं होने देते तो मुझे छुओ
थोड़ा-सा छुओ, बहुत ज़रा-सा छुओ
रोमों और सीने को
त्वचा की ज़ंग हटाकर छुओ त्वचा को, चुम्बन दो
गले को धर दबोचो
मौत की इच्छा को मार दो
सातवीं मंज़िल से फेंक दो! स्वप्न दो, बचा लो।

पूरब की साड़ी के आँचल को बाँध कर
पश्चिम की धोती की पटलियों से
रंग लाने के लिए मैं जाऊँगी आसमान के पार
जहाँ ढेर सारे रंगों के बर्तन रखे हुए हैं
कोई साथ चलेगा? पश्चिम से पूरब की ओर
दक्षिण से उत्तर में घूम-घूम कर
अब मैं उत्सव का रंग लाने जा रही हूँ
किसी और की इच्छा हो तो चले
किसी की भी इच्छा हो तो
दोनों आसमानों को ज़िन्दगी-भर के लिए मिला देने के लिए, चले।

यदि ये मिल जाएँ तो अस्त नहीं होऊँगी मैं
उस अखण्ड आकाश में मैं नहीं होऊँगी अस्त
काँटेदार तार की बागड़ बनाकर गुलाब का बग़ीचा लगाऊँगी
मैं अस्त नहीं होऊँगी,
इस पार से उस पार तक प्यार की खेती होगी
दिगन्त के पार तक तैरते-तैरते
मैं गंगा पद्मा और ब्रह्मपुत्र को एकाकार कर दूँगी
अस्त नहीं होऊँगी मैं...।

मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी