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आई है बरखा! / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
मस्ती-सी छलकाती
आई है बरखा,
बिजली का झूल गया
रेशमी अंगरखा!
कुहरे की नरम-नरम
चादरें लपेटे,
सूरज भी दुबक गया
धूप को समेटे।
कैसे टिकता, आखिर
बोझ था उमर का!
बादल की बादल से
हो गई लड़ाई,
बूँदों से बूँद लड़ी
कौन-सी बड़ाई?
आपस में लड़कर ही
अपना बल परखा!
कोस रही सावन को
अपने ही मन में,
पानी का ढेर लगा
सारे आँगन में।
दादी माँ कात न पाई
आज चरखा!
हवा चली, माटी की
खुशबू को छूकर,
हरियाली उतरी है
पेड़ों के ऊपर।
धरती का सूखा भी
चुपके-से सरका!
मस्ती-सी छलकाती
आई है बरखा!