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आएँ नहीं जाएँ, प्राण करें धुक-धुक / जयप्रकाश त्रिपाठी
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उँगली में पोर-पोर नाधे सुख-दुख।
बित्ताभर जीवन के रोज़ नए रुख।
खोज-खोज राह थके, ठाँव-ठौर गुम,
कोई कहे चलता चल, कोई कहे रुक।
चूल्हा-चक्की लादे डगर-मगर पाँव,
आएँ-नहीं-जाएँ प्राण करें धुक-धुक।
सीना ताने क्यों, फैले दोनो हाथ,
चाहे तो रीढ़ बिना और जरा झुक।
सौ-सौ अनर्थ लिए एक-एक अर्थ,
तितर-बितर शब्द हुए, मिलें नहीं तुक।