भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आए जब भी सवाल काग़ज़ पर / हरेराम समीप
Kavita Kosh से
आए जब भी सवाल काग़ज़ पर
कह गए मेरा हाल काग़ज़ पर
बाढ़‚ सूखा‚ अकाल काग़ज़ पर
हम हुए मालामाल काग़ज़ पर
लाइनें थीं जहाँ मरीज़ों की
था वहाँ अस्पताल काग़ज़ पर
कौन भीतर के अब तनावों की
रोक पाएगा चाल काग़ज़ पर
जिनका हर शब्द ठोस होता था
आज वे हैं निढाल काग़ज़ पर
कुछ अँधेरा तो मन का दूर हटे
यूँ जलाएँ मशाल काग़ज पर