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आए हम शहर / रमेश चंद्र पंत
Kavita Kosh से
आए हम शहर
गाँव नेहों का भूल गए !
चेहरों पर एक नहीं
अनगिन हैं पर्तें
कितनी जो जीने की
ऐसी हैं शर्तें
जामनु की छाँव
नीम-बरगद को भूल गए !
कैसे तो दाँव यहाँ
रोज़ लोग चलते
औरों की कौन कहे
अपनों को छलते
कागा का काँव
यहाँ आकर हम भूल गए !
कुछ ऐसी भाग-दौड़
भीतर तक टूटे
सपने जो लाए थे
संग-साथ छूटे
आए थे पाने कुछ,
ख़ुद को ही भूल गए !