आओ, इस अजस्र निर्झर के / अज्ञेय
आओ, इस अजस्र निर्झर के तट पर प्रिय, क्षण-भर हम नीरव
रह कर इस के स्वर में लय कर डालें
अपने प्राणों का यह अविरल रौरव!
प्रिय! उस की अजस्र गति क्या कहती है?
'शक्ति ओ अनन्त! ओ अगाध!'
प्राणों की स्पन्दन गति उस के साथ-साथ रहती है-
'मेरा प्रोज्ज्वल क्रन्दन हो अबाध!'
प्रिय, आओ इस की सित फेनिल स्मित के नीचे
तप्त किन्तु कम्पन-श्लथ हाथ मिला कर
शोणित के प्रवाह में जीवन का शैथिल्य भुला कर
किसी अनिर्वच सुख से आँखें मीचे
हम खो जावें, वैयक्तिक पार्थक्य मिटा कर!
ग्रथित अँगुलियाँ, कर भी मिले परस्पर-
प्रिय, हम बैठ रहें इस तट पर!
औ अजस्र सदा यह निर्झर गाता जाए, गाता जाए, चिर-एकस्वर!
पर, एकस्वर क्यों? देखो तो, उड़ते फेनिल
रजतकणों में बहुरंगों का नर्तन!
क्यों न हमारा प्रणय रहेगा स्वप्निल छायाओं का शुभ्र चिरन्तन दर्पण!
इन सब सन्देहों को आज भुला दो!
क्षण की अजर अमरता में बिखरा दो!
उर में लिये एक ललकार, सुला दो,
चिर जीवन की ओछी नश्वरताएँ! सब जाएँ, बह जाएँ;
यह अजस्र बहता है निर्झर!
आओ, अंजलि-बद्ध खड़े हम शीश नवा लें।
उठे कि सोये प्राणों में पीड़ा का मर्मर-
हम अपना-अपना सब कुछ दे डालें
मैं तुम को, तुम मुझे, परस्पर पा लें!
मूक हो, वह लय गा लें...जो अजस्र बहुरंगमयी, जैसी यह निर्झर-यह अजस्र जो बहता निर्झर!
डलहौजी, अक्टूबर, 1934