भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आओ, हम मिलकर / देवेंद्रकुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने कहा था
आज तुम्हें फुरसत है
और कुछ भी काम नहीं
तो आओ
आज हम दोनों
मिलकर हंसें।

अभी सिर्फ बात हुई थी
लोग उदास हो गए
उन्होंने छिपा ली अपनी हंसी
माथे पर आ गई रेखाएं
चुप्पी यहां से वहां तक,
वे पूछ रहे हैं
आखिर यह हंसी का प्रोग्राम
किसलिए?

चलो, कहीं और चलें
बियाबान
पत्तों की छांह तले,
पानी के पास
हम दोनों बैठकर
कुछ न करें
बस, मिलकर हंसें।

अरे लो
तुम भी उदास हो गए
तुम्हें क्या हुआ?
उन जैसी नजरें।
तो क्या तुम भी
यानी मैं चाहूं तो
अकेला हंसूं
न...न...यह न होगा

मुझे यों अकेला न छोडो
इस तरह मत तोड़ो
देखो न और कोई भी नहीं
कुछ अनजान परिन्दे
और थोड़े से फूल
मौसम अच्छा है
मान जाओ मेरे दोस्त,
मैं हाथ जोड़ता हूं
मुझे गड्ढे में मत डालो
अकेली हंसी के!
अच्छा कम से कम
एक बार तो
हम दोनों मिलकर...