भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आओ अब लौट चलें / रचना श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
‘’’आओ अब लौट चलें’’’
आओ अब लौट चलें
माँ ने बनाईं है खीर
बचा रखी है
थोड़ी-सी धूप
सर्द रातों की
गरम मूँगफलियाँ
रज़ाई मे मेरा कोना
आओ अब लौट चलें
बहन ने बुना है प्यार
सँभाल रखे हैं
बचपन के पल
कंचों की पोटली
लूटी पतंगें
आओ अब लौट चलें
अभी ढूँढ़ना बाकी है
मेरी खोई गेंद
बनवाना है बल्ला
भरनी है
पिच के लिए खोदी ज़मीं
आओ अब लौट चलें
चलो देखें गलियों में क़दमों के निशान
नन्हें प्यार की महक
दीवार पे लिखा अपना नाम
आओ अब लौट चले
देश से ले आए डिग्री
भारतीय होने का मान
तिरंगे के रंग
अपने संस्कार
कुछ देने का है समय
आओ अब लौट चलें
अमेरिका ने छीना
पिता के सपने
माँ का इंतज़ार
बहन का सावन
बचपन का प्यार
और कुछ खोने से पहले
आओ अब लौट चलें