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आओ अब / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

आओ अब
कि आ जाओ अब
आओ न करो अब देर
बीत गई रात हैवानियत की
 इधर की हो गई मानवीय सबेर

गाओ अब
कि गाओ बजाओ अब
गाओ न लखो मुंह अब फेर
सभी जग उठे हैं सब को है चिंता
इधर सभी ने कहा हुई बहुत अंधेर

आओ अब
कि आओ बस जाओ अब
बसाओ दुनिया न करो अब देर
हुए तुम विस्थापित दूनिया से मेरे जो
करो स्थापित स्वयं को हे प्रकृति के कुबेर