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आओ पतझर / रामकृपाल गुप्ता

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आओ पतझर
लेकर सर-सर
झंझा तरू पर
झर पडे़ पात सूखे
झर-झर
खड़-खड़-खड़ कर
ले नूतन स्वर
आओ पतझर
कर दो सूनी डाली-डाली
खोई प्रकृति की हरियाली
आह्नान बसंती का करने
तड़पे प्राची की अरूणाली
अनगिनत पतंगो-सी टूटें
तरू से सत्वर
नभ में तिरकर
गिरकर भू पर
चरमर-चरमर
चरमर-चरमर
ले नूतन स्वर
आओ पतझर
फूटे न धरा का भाग
जाग रे जाग
आग लग गई आज
मानवता पीड़ित
खोज रही है
नूतन का अनुराग
रे प्रकृति सुन्दरी की
सूनी माँगों में बिखरे
नव बसंत
सिन्दूरी सन्ध्या का सुहाग
द्रुम लता कुंज
हँस पड़े गुलाबी
अधरों से
कोमल किसलय
कोपलें नयी रंगीन
और कू-कू का मृदु स्वर
जन-जन में
नव जीवन भर
कलिकाओं पर
गुन-गुन गुंजन
उड़ते विहंग कलरव भर
उर-उर की वीणा पर साधें
गत चिर नवीन
सुस्निग्ध मन्द
शीतल सुरभित
सर-सर-सर-सर
पद न्यास कर रहा
है कोई धीरे-धीरे
चुपके-चुपके
इस भूपर
लेकर नयनों में ज्योति
गीत अधरों पर
हँसकर आया फिर
खोया यौवन
जाओ पतझर