आओ बुनेंगे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
140
दीपक की लौ
गाल पर ढुलका
जैसे हो आँसू ।
141
दबी रुलाई
बसी परदेस में
बेटी न आई ।
142
भाई जोहता
बाट एकटक , न
आई बहना ।
143
नींद थी आई
सपने में सिसका
पड़ी सुनाई।
144
सिसके पिता
सबसे छुपकर
अँधियारे में।
145
चलते गए
लुटे-पिटे -से पिता
गलियारे में ।
146
पता ये चला -
बेटी हुई व्याकुल
हिरनी जैसी ।
147
दीपक जले
नभ उतरा धरा
मिलता गले ।
148
अँधेरा डरा
देखकर उजाला
छुपता फिरा ।
149
रोशनी बसी-
मन नन्हें शिशु की
बिखरी हँसी
150
दिया जो जला
था डरा अँधियारा
उजाला खिला
151
मन का तम
मिटाते रहे तेरे
मन के दिए ।
152
दीप जलाओ
जो भटके पथ में
राह दिखाओ ।
153
प्रेम -दीप से
मन में हैं उजाले
तुम्हीं ने बाले ।
154
कब था डरा ?
नन्हा -सा दीप यह
नेह से भरा ।
155
आओ बुनेंगे
उजालों की चादर
भावों से भर ।
156
दुख-पाहुन
न मन में टिकाओ
दीप जलाओ ।
157
रौशन घर
बन गया मन्दिर
पूजा के स्वर ।
158
उस वर्षा में
खूब तैरता है ये
आँगन सारा
159
रिश्तो के नाम
गिरवी न रखेंगे
सुबह -शाम ।
16
मिलेगा प्रेम
तो निभाएँगे हम
सारे ही नेम ।