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आओ यों करें ! / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

  
133
छोटी- सी नाव
तैरा निंदा का सिन्धु
डुबाने वाले लाखों
फिर भी बचे
प्रिय आओ यों करें!
कुछ दर्द बुहारें।
134
बहे समीर
उड़ें दु:ख-बदरा
तन, मन, पुलकें
चमकें नैन
बीती दुख की रैन
मुकुलित कजरा।
135
छू गए मन
अनुराग-वेष्ठित
मधुमय वचन
मन आँगन
झरे हरसिंगार
हँसे जड़ चेतन।
136
जीवन रहा
चन्दन उपवन
जलाई थी अगन
कुछ न बचा
सब था ख़ाक हुआ
जीवन राख हुआ
137
न धन लूटा
न दिया धोखा कभी
इसे पाप समझा
इस जग के
दस्तूर हैं निराले
चुप रहना सीखो।
138
क्या वक़्त आया
हर्षित है विषाणु
पंगु हुआ मानव
चली सवारी
सगे भी दूर भागे
देता न ओई काँधा ।
139
शोषण बढ़ा
कराह उठी सृष्टि
हो गई वक्र दृष्टि
देर न लगी
शव ढोते नगर
काँपें आठों पहर ।
140
बैठी दुनिया
बारूदी ढेर पर
समझ सिंहासन
लात जो पड़ी
अकड़ मिली धूल
खैर माँगती फिरे।